उत्तराखण्ड

सशक्त भू- कानून सहित कई अन्य मांगों को लेकर राजधानी की सड़कों पर उमड़ा जनसैलाब

देहरादून: मूल निवास 1950 और सशक्त भू- कानून की मांग को लेकर उत्तराखंड की राजधानी की सड़कों पर ऐसा जनसैलाब उमड़ा कि सड़कें भी छोटी पड़ गईं। हर तरफ प्रदेश के कोने-कोने से पहुंचे लोगों का हुजूम था और जुबां पर एक ही नारा था, ‘मूल निवास- भू कानून’। यह भीड़ किसी राजनीतिक दल की जुटाई हुई नहीं थी, न ही इसके पीछे किसी संगठन विशेष की किसी मांग का आक्रोश था।

हजारों की संख्या में पहुंचे लोगों में तमाम संगठन, राजनीतिक व सामाजिक दल पीछे छिप गए थे और आंदोलन का एक ही चेहरा सामने था, ‘जनांदोलन’। महारैली की एकजुटता बता रही थी कि यह भावनाओं का आंदोलन है, यह जन आकांक्षाओं का आंदोलन है, यह प्रदेश की बहुसंख्य जनता के स्वामिभान और हितों की रक्षा का आंदोलन है, यह प्रदेश के संसाधनों की चिंता का आंदोलन है।

मूल निवास स्वाभिमान महारैली में शामिल हुए प्रदेशभर के लोग विभिन्न संगठनों के बैनर तले सुबह 10 बजे देहरादून के परेड ग्राउंड में एकत्रित हुए। मूल निवास स्वाभिमान महारैली के लिए भले ही भू कानून समन्वय संघर्ष समिति, प्रदेश की संस्कृति के ध्वजवाहक लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, अखिल भारतीय समानता मंच, राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी, उत्तराखंड क्रांति दल, विभिन्न आंदोलनकारी, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक दलों, युवा संगठनों ने आह्वान किया था, लेकिन परेड ग्राउंड में सभी एकाकार हो गए। यहां से हुजूम रैली की शक्ल में कचहरी परिसर स्थित शहीद स्मारक पहुंचा।

इस दौरान महारैली ने ढोल-दमाऊ, डौंर आदि के माध्यम से उत्तराखंड और उत्तराखंडियत को जागृत करने वाले जनगीत गए। सरकार को भी जगाने का काम किया गया और अपने अधिकारों की मांग की आवाज बुलंद की, साथ ही शहीद समारक पर भी तमाम वक्ताओं ने कहा कि क्यों मूल निवास 1950 और सशक्त भू- कानून की जरूरत है। साल के अंतिम माह और अंतिम दिनों में महारैली के माध्यम से जो आवाज उठी है, उसकी गूंज आने वाले वर्ष में और तेज हो सकती है। हालांकि, यह सब सरकार के रुख पर निर्भर करेगा। इतना जरूर है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जनभावनाओं की आवाज और उसके पीछे के मर्म को अच्छी तरह समझते हैं। यही कारण है कि महारैली से पहले ही सरकार ने जन भावना के साथ खड़े होने के संकेत भी दे डाले हैं।

 

भू- कानून समिति की रिपोर्ट के अध्ययन के साथ ही मूल निवास प्रमाण पत्र के मानक निर्धारित करने के लिए समिति का गठन किया जा चुका है। परिणाम क्या होंगे यह अभी कहना मुश्किल है, लेकिन दून में उमड़ा यह हुजूम बताने के लिए काफी है कि यह मुद्दा पूरी तरह भावनात्मक और जनआकांक्षाओं से जुड़ गया है।

प्रदेश की जनता मूल निवास और भू- कानून पर इस बार आर या पार की लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रही है। यह मांग है तो पुरानी, लेकिन इस बार आंदोलन में सभी वर्गों की एकजुटता दिख रही है। उत्तराखंड में राज्य स्थापना के बाद से ही हिमाचल की तर्ज पर सशक्त भू कानून लागू की मांग उठने लगी थी। जिसमें सबसे पहले वर्ष 2002 में सरकार की तरफ से प्रावधान किया गया कि राज्य के भीतर अन्य राज्य के लोग सिर्फ 500 वर्ग मीटर की जमीन ही खरीद सकते हैं। इस प्रावधान में वर्ष 2007 में एक संशोधन कर दिया गया और 500 वर्ग मीटर की जगह 250 वर्ग मीटर की जमीन खरीदने का मानक रखा गया। 06 अक्टूबर 2018 को भाजपा की तत्कालीन सरकार ने संशोधन करते हुए नया अध्यादेश प्रदेश में लाने का काम किया। उसमें उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि सुधार अधिनियम 1950 में संशोधन करके दो और धाराएं जोड़ी गई। जिसमें धारा 143 और धारा 154 के तहत पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को ही समाप्त कर दिया गया। यानी राज्य के भीतर बाहरी लोग जितनी चाहे जमीन खरीद सकते हैं।

राज्य सरकार की मंशा थी की इस नियम में संशोधन करने के बाद राज्य में निवेश और उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन अब सरकार के इस फैसले का विरोध होने लगा है। इसके साथ ही राज्य में मूल निवास की अनिवार्यता 1950 करने की मांग की गई है। वर्ष 1950 से राज्य में रह रहे लोगों को ही मूल निवासी/स्थाई निवासी माने जाने की मांग उठ रही है।

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